Saturday, 9 December 2017

लगा जैसे तुम्हारा फ़ोन आया।

रात को सो नहीं पाया
अजब सी बेचैनी छाई थी
सुबह आँख जब खुली
बस इतना सा ख्याल आया
लगा जैसे तुम्हारा फ़ोन आया।

सन्नाटे छा रहे थे कमरे में
बेचैनी बढ़ रही थी
मानो हवा थम सा गया हो
धड़कने रुक सी गई थी।

बस इंतेजार कर रहा था
कोई हलचल मच जाए
इस सन्नाटे में कोई तो गुनगुनाए
अचानक मधुर आवाज सा आया
लगा जैसे तुम्हारा फ़ोन आया।

शर्दियों का मौसम भी प्रिये
अलग सा एहसास दे रहा था
कुछ यादे पास था मगर
वक़्त अधुरा लग रहा था।

करवटे बदलते याद आता है
मायूसी आँखों से छलक जाता हैं
फिर देर रात खुद को समझता हूँ
रात को खोकर ही सुबह आया
प्रिये! लगा जैसे तुम्हारा फ़ोन आया।

रात आधी हो चुकी थी
चाँद- तारे भी सो चुके थे
कुछ ख्वाब मैं भी बुन रहा था
खुद को ही खुद में सुन रहा था।

फिर नींद आयी, सुकून मिला
सपनो में कोहिनूर मिला
चमक देख आँखे खुली
तब जाकर समझ पाया
लगा जैसे तुम्हारा फोन आया।

~दीपक कु0 तिवारी
            "दीपांजल"

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