Wednesday, 11 October 2017

सोचता हूँ......

किस बात का दुख होता है मुझे
किस बात की आंशु निकलती हैं
जवाब तब मिला जब खुद को जाना
फिर सोचा क्या यही परिभासा है
मेरे जीवन का मेरे सृजन का
मेरी माँ के कष्टो का जिशने मुझे जन्म दिया
मेरे पिता का जिशने मुझे नाम दिया
क्या मेरा दुख उचित है
क्या सब की आशाओ को
अपने आँशुओ मे बहा दू
जिंदगी छूटती नजर आती हैं
आशाएं खोता नजर आता है
फिर याद आती है दादी की बाते
जिन्होंने मेरे ललाट पे हाथे फेरा करती थी
और कहती थी तुम बहोत बरे इंसान बनोगे
फिर सोचता हूं क्या इश समाज मे
इंसानियत बची हैं, जिशके अंदर झाक सकू
जवाब नही? फिर किस रास्ते पे चलू
क्या उसी रास्ते जिशपे सब चल रहे हैं
घबरा जाता हूं सहम सा जाता हूं
क्या मेरा सृजन यही कर्म करने को हुआ
जवाब नही? फिर क्यों दुखी हूं
क्यो आंशुये भरी है आंखों में
जो छूट गए वो अपने थे ही नही
अपनी शक्ति अपनी सृजन की
दायित्व को कब जानूँगा
कब समझूंगा, यही सोचता हूं
बस यही सोचता रहता हूं ।

        ~ दीपक कुमार तिवारी "दीपांजल"

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